Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य हानिरहित) संख्या तो गर्भज मनुष्य की संख्या जब तक अवस्थित रहे तब तक ही अथवा तो उससे कम समय तक ही रह सकेगी। लेकिन भगवती सूत्र में तो संमूर्छिम मनुष्यों की अवस्थित संख्या गर्भज मनष्य की अवस्थित संख्या से अधिक समय (=दुगुने समय) तक बताई है।
यदि संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर से बाहर निकले मलादि अशुचिस्थान में ही मान्य की जाए तो अशुचिस्थान की संख्या ४८ मुहूर्त तक वृद्धि-हानिरहित एक समान अवस्थित टिकी रहे (नए मलमूत्रादि आए और पुराने सूख जाए इत्यादि विचारणा द्वारा) वह बात संभवित हो सकती है। परिणामतः, संमूर्छिम मनुष्य की संख्या एक समान अवस्थित रहे-वैसी बात शक्य बन सकेगी। आगमिक सिद्धांत अनुसार, गर्भज मनुष्य की संख्या की वृद्धि में भी संमूर्छिम मनुष्य की संख्या में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति गर्भज मनुष्य में से बाहर निकले हुए अशुचिरूप स्थान के साथ संलग्न है, न कि गर्भज मनुष्य के साथ।
हृदय को झकझोर कर इस सूत्र के तात्पर्य की विचारणा करेंगे तो 'संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शरीर से बाहर निकले मलादि में ही होती है' - इस बात में आगमिक संमति का होना अवश्य ज्ञात होगा।
इस बाबत पर सूक्ष्म और गंभीर विचारणा आवश्यक है। इस विषय में किसी भी प्रकार की त्वरित प्रतिक्रिया दर्शाने के बजाय शांत चित्त से विचारणा कर्तव्य है। अनेक प्रश्न उठ खड़े हो सकते हैं। साथ साथ उनके समाधान भी प्रस्तुत सूत्र के व्याख्याग्रंथों का एवं पन्नवणासूत्र का एकसाथ तलस्पर्शी अध्ययन करने से मिल जाए वैसे हैं।
एक बात समझ लें कि “न हि अदृष्टं दृष्टं विना प्रवर्त्तते ।" अदृष्ट, लोकस्थिति वगैरह द्वारा होने वाले कार्य भी किसी न किसी दृष्ट
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