Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने हेतु अन्य यतना
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तथापि रामलालजी महाराज को संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए प्रस्तुत में शास्त्रीय यतना हम बताते हैं। शास्त्र में ऐसा विधान है कि :
संसक्तग्रहणी = कृमि वगैरह जीवयुक्त मलादि हो तो छाया में परठे, परंतु यदि मलादि जीव युक्त न हो तो उसे गरमी-आतप में परटें।
ये रहे निशीथचूर्णिकार के शब्द - __“असंसत्तगहणी उण्हे वोसिरति, संसत्तगहणी छायाए वोसिरति...।" (नि.भा. १८७१ चूर्णि)
“असंसत्तगहणी, तेण ण छायाए वोसिरति” (नि.भा. १८७२
चूर्णि)
यहाँ देखिए ! कृमि वगैरह न हो तो उच्चार को ताप-गरमी में व्युत्सृष्ट करने की स्पष्ट बात बताई है। यह विधान क्या संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए यतना नहीं सूचित करता? मल के नीचे धरती तप्त हो, ऊपर से सूर्य का प्रचंड ताप हो वैसी स्थिति में मल में संमूर्छिम मनुष्य की योनि ही तैयार न हो वैसी भी प्रबल संभावना ज्ञात होती है। तदुपरांत, परठा हुआ मल योग्य समय में सूर्य के ताप से शक्य उतना जल्दी सूख जाता है। इससे स्पष्टतया समझ सकते हैं कि शुष्क
और पर्यायांतर को प्राप्त ऐसी अशुचि में संमूर्छिम की उत्पत्ति मान्य न होने से उसकी विराधना से बच सकते हैं। आतप में मलविर्सजन करने के विधान के पीछे संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के अलावा ओर कौन सा प्रयोजन मुख्य हो सकता है ? अत्यंत स्पष्टतया यहाँ मलमूत्र विसर्जन विषयक संमूर्छिम मनुष्य की विराधना से बचने के लिए यतना बताई है।