Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य आचारांग नियुक्ति गाथा १२४ का पूर्वार्ध इस प्रकार है : "किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंचि।” श्रीशीलांकाचार्यविहित तवृत्ति इस प्रकार है :
"किञ्चित् शस्त्रं स्वकाय एव = अग्निकाय एव अग्निकायस्य, तद्यथा - तार्णोऽग्निः पार्णाऽग्नेः शस्त्रमिति । किञ्चिच्च परकायशस्त्रं उदकादि। उभयशस्त्रं पुनः तुष-करीषादिव्यतिमिश्रः अग्निः अपराग्नेः।"
यहाँ स्पष्ट है कि अग्निकाय की योनि उष्ण होने पर भी अन्य विलक्षण अग्नि वगैरह की गरमी-उष्णता से उसका वध-नाश वगैरह मान्य है।
इसी तरह ‘संमूर्छिम मनुष्य की योनि उष्ण होने पर भी शरीरादि की गरमी से, शरीर में से बाहर निकले रक्तादि में, संमूर्छिम मनुष्य की योनि की रचना नहीं होती, उसका प्रतिरोध हो जाता है । अतः संमूर्छिम मनुष्य की विराधना का प्रश्न ही नहीं आएगा' - यह बात आगमिक सत्य से दूर नहीं। प्रत्युत, रक्तादि पर क्षार-भस्म का विधान, वस्त्र बांधने का विधान – ये सब आगमिक परंपराएँ भस्म, शरीर की उष्मा वगैरह से संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति का प्रतिरोध हो जाने की बात का प्रबल समर्थन करते हैं।
इस विषय में यदि आप का ऐसा कहना हो कि "स्वकायशस्त्र होने मात्र से स्वकाय में भी जीव की उत्पति का प्रतिरोध नहीं हो जाता, शस्त्र तो उत्पत्ति के बाद नाश करने का कार्य करता है, नहीं कि उत्पत्ति रोकने का।"
तो ऐसी बात दिग्भ्रमित करने वाली है । रामलालजी महाराज ने जब ऐसा कहा कि संमूर्छिम मनुष्य उष्णयोनि वाले होने से शरीर की गरमी उनकी उत्पत्ति को रोक नहीं सकती, तब उसके सामने सीधा उत्तर दिया गया कि - उष्णयोनि वाले होने मात्र से उष्णता उनकी उत्पत्ति को रोक नहीं सकती - वैसी बात किस आगमिक सबूत के