Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य विराधना नहीं होने की बात उस सूत्र के द्वारा कैसे फलित हो सकती है ? 'बिलकुल विराधना ही न हो वैसी ही बाबत का विधान अपवाद पद में भी शास्त्रकार करते हैं' वैसी बात तो आगम अनभिज्ञ पुरुष ही कर सकता है, क्योंकि यथाअवसर बड़ी विराधना से बचने के लिए अल्प सावद्यक्रिया की अनुज्ञा शास्त्रकारों ने अनेकत्र दी है । प्रस्तुत में ऐसा मंतव्य पेश किया जाता है कि
“ प्रस्तुत सूत्र
को कारणिक किस अंश में कहना है ? ( १ ) मात्रक में लघुशंकादि करने का प्रसंग है उस अपेक्षा से या ( २ ) पूरी रात मूत्रादि रखने का विधान है उसे उद्देश्य कर के ? प्रथम विकल्प तो हमें मान्य ही है । द्वितीय विकल्प अप्रामाणिक है। हकीकत में पूरी रात मूत्रादि को रखना वह उत्सर्गमार्ग है, क्योंकि रात्रि के समय मूत्रादि का परिष्ठापन वह अपवाद है।”
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परंतु इस बात का आगम के साथ विरोध आता है । सायंकाल में वसतिप्रतिलेखन करने की बात, उभयपक्ष के लिए, इतना तो सिद्ध कर ही देती है कि रात्रि के समय मल-मूत्रादि परिष्ठापन वगैरह करने के लिए बाहर जाना तो है ही - उत्सर्गतः ! विवाद सिर्फ इतना ही है कि मात्रक में किए हुए मल-मूत्रादि रात्री के समय बाहर परिष्ठापन के लिए न जाना वह उत्सर्ग है या अपवाद ? हमारा जवाब है : अपवाद । रामलालजी महाराज उसे उत्सर्ग बताते हैं ।
अब ध्यान से पढ़िए : यदि मात्रक में रखे हुए मूत्रादि के परिष्ठापन के लिए रात को बाहर न जाना वह उत्सर्ग हो, तो फिर उसका फलितार्थ ऐसा निकलेगा कि रात्रि के समय, बिना मात्रक के, Direct मूत्रादि शंकानिवारण के लिए जाना वह उत्सर्ग, परंतु मात्रक में किए हुए मूत्रादि के परिष्ठापन हेतु बाहर जाना वह उत्सर्ग नहीं, परंतु अपवाद ! कैसा परस्पर व्याहत होने वाला यह कथन है ? यदि रात्रि के
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