Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य संस्कार जीवंत हैं यह बात अत्यंत स्पष्ट हो जाती है । इसी दृष्टिकोण से यह बात यहाँ बताई है । संमूर्च्छिम मनुष्य विषयक प्रवर्त्तमान प्रस्तुत आगमिक परंपरा को इससे बड़ी सलामी ओर क्या हो सकती है ?
इस तरह हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि श्रीनिशीथसूत्रभाष्य की वर्षाकाल में तीन-तीन मल्लुक रखने की बात से 'संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना हमारे द्वारा शक्य नहीं' वैसा सिद्ध नहीं होता । प्रत्युत संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना से बचने का उपाय ही उससे द्योतित होता है । अर्थात् संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना शक्य होने से उससे बचने का ही उपदेश दिया गया है ।
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मृतदेह की बात का विश्लेषण
अपने B-5 क्रमांक विचारबिंदु में श्रीरामलालजी महाराज यूँ कह रहे हैं कि " मुनि के मृतक की उपस्थिति में रात्रि के समय कायिकी (= मूत्र) का पात्र स्थापित रखने की बात है । अतः संमूर्च्छिम मनुष्य की विराधना अशक्य सिद्ध होती है ।
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परंतु यह बात तो स्वतः निरस्त है । सबसे पहले तो यह ज्ञातव्य है कि रात्रि के समय मुनि के मृतदेह को रखना वह कारणिक है । उत्सर्ग से तो दिन हो या रात, तत्काल उस मृतदेह की महापारिष्ठापनिका करने की बात है । अन्यथा थोड़े समय बाद उसमें समूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होने से उस मृतदेह को उठाने आदि में अपने हाथों से संमूर्च्छिम की विराधना का प्रसंग आएगा । अत एव तत्काल महापारिष्ठापनिका समिति की बात की गई है ।
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आवश्यक निर्युक्ति की पारिष्ठापनिका निर्युक्ति में बताया है कि
"जं वेलं कालगओ निक्कारण, कारणे भवे निरोहो । (गा. ३८ पूर्वार्ध) इस गाथा की हरिभद्रीय वृत्ति में उद्धत प्राचीन व्याख्या में
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