Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
View full book text
________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य शुक्रपुद्गलपरिशाटेषु वा = पूर्वं शुष्कपश्चादार्द्रशुक्रेषु इत्यर्थः।"
प्रस्तुत विवरण से शुक्र = शरीर से बहिर्निर्गत शुक्र में (=शरीर से बाहर निकलने के बाद भी अंतर्मुहूर्त से अधिक काल तक आर्द्र रहे शुक्र में) और पहले शुष्क हो चुके परंतु पुनः रक्त, जलादि के संयोग से आर्द्र हुए शुक्र में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति बताई गई है। अर्थात् यदि शुक्रादि अशुचि बाहर निकलने के बाद किसीके साथ अत्यंत एकमेक हुए बिना यूँ ही पड़े रहने से सूख गई हो तो पुनः स्त्रीशोणित, जलादि के संयोग से उसके आर्द्र होने पर उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शक्य है - ऐसा ध्वनित अर्थ हम समझ सकते हैं। इसके द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि शुष्क हो चुके शुक्रादि अशुचि में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति शक्य नहीं। परंतु सूखी न हुई अशुचि में वह शक्य है। * रामलालजी महाराज के विधान से ही परंपरा को पुष्टि H
EDEEPRESS यह बात सिर्फ घासीलालजी महाराज ही बताते हैं वैसा नहीं है, किन्तु रामलालजी महाराज ने स्वयं अपने लेख में प्रस्तुत पन्नवणा सूत्र का अर्थ करते वक्त “शुक्रों (वीर्यों) में, पहले सूखे हुए परन्तु पुनः गीले शुक्र पुद्गलों में" - ऐसा बताया है। इसके द्वारा स्पष्ट होता है कि - अशुचि के सूख जाने के बाद उसमें संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती और फलतः उसकी विराधना भी नहीं होती। अतः बाहर रही आर्द्र अशुचि में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति और विराधना होती है - वैसा भी सिद्ध हो जाता है। वर्तमान में यही परंपरा प्रसिद्ध है।
शुक्रपुद्गलपरिशाट का ऐसा अर्थ उचित है या नहीं? वह चर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं है। परंतु उसका ऐसा अर्थ लिखने वाले के मन में क्या आशय है?' उसका हमें स्पष्टीकरण करना है। प्रस्तुत अर्थ जब रामलालजी महाराज स्वयं करते हो तब उनके हृदय की गहराई में भी किस बाबत के
८०