Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
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वाताऽगणि-धूमेहिं विद्धत्थं होति लोणादी ।।४८३३ ।। अर्थात् नमक जैसी तीक्ष्ण योनि वाले पृथ्वीकाय आदि भी अन्यान्य बरतनों में संक्रांत होना वगैरह द्वारा सौ योजन तक पहुँचने पर अचित्त हो जाते हैं । (चूर्णि में तो भंडसंक्रांति को अत्यंत स्पष्टतया स्वतंत्र योनिविध्वंसक परिबल के रूप में परिभाषित किया गया है । उसकी बात आगे की जाएगी।) जो तीक्ष्ण शस्त्र से भी दुर्विराध्य है वैसे तीक्ष्ण योनि वाले ऐसे सचित्त नमक का, भंडसंक्रांति वगैरह के माध्यम से अचित्त होना जब आगमसम्मत हो तब जिसमें जीवोत्पत्ति (= संमूर्च्छिम मनुष्य की उत्पत्ति) नहीं हुई हो वैसे मात्रक आदि को तदंतर्गत कायिकी आदि को ( = तरल और अत्यंत मृदु वैसे उस उत्पत्तिस्थान को ) हिलाने द्वारा उसमें निर्मित हो रही संमूर्च्छिम मनुष्य की योनि का विध्वंस हो जाना उसे अनागमिक, काल्पनिक या असंभवित नहीं मान सकते । उसमें भी जब परापूर्व से प्रचलित ऐसी प्राचीन परंपरा का उसे पीठबल हो । (१) एक बात तो स्पष्ट है कि विध्वस्त योनि में जीवोत्पत्ति नहीं होती । ( एक बात ध्यान में रखें कि विशेष संयोगों के अलावा इस परंपरा का यानी कि हिला कर लंबे समय तक मूत्रादि को रखने का व्यवहार उचित नहीं है ।)
इस बात की थोड़ी ओर स्पष्टता कर लें । सबसे पहले ध्यातव्य है कि यहाँ कोई नई बाबत को शास्त्रसिद्ध साबित करने का प्रयत्न नहीं है। परंतु वर्तमान में जो परंपरा प्रचलित है, वह शास्त्रविरुद्ध नहीं - उतना ही साबित करने का यह प्रयास है । तथा जो परंपरा अनेक सुविहित श्रीदशवैकालिकसूत्रभाष्य गा. ५८ में बताया है कि "विद्धत्थाविद्धत्था जोणी जीवाण होइ नायव्वा ।
(१)
तत्थ अविद्धत्थाए वुक्कमई सो य अन्नो वा ।। ५८ ।। ”
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श्रीहरिभद्रसूरि महाराजा विरचित वृत्ति :
"विध्वस्ताऽविध्वस्ता अप्ररोह - प्ररोहसमर्था योनिर्जीवानां भवति ज्ञातव्या, तत्राऽविध्वस्तायां योनौ व्युत्क्रामति स चाऽन्यो वा जीव इति गम्यत इति गाथार्थः ।। "
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