Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य यदि किसी के अशुचि में कृमियाँ आती हों तो छाया में बैठना चाहिये या कुछ देर (१०-२० मिनट) बाद परिष्ठापन करना चाहिये।" (पृ. ९३-९४)
लीलमबाई महासतीजी की निश्रा में 'गुरुप्राण फाउन्डेशन' द्वारा प्रकाशित निशीथसूत्र अनुवाद -
"जो साधु या साध्वी दिन में, रात्रि में या संध्या समय में उच्चार-प्रस्रवण की बाधा हो तब अपने पात्र को ग्रहण कर के अथवा अन्य साधु के पात्र की याचना कर के, उसमें उच्चार, प्रस्रवण कर के जहाँ सूर्य का ताप पहुँचता न हो वैसे स्थान में परठे या परठने वाले का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।"
इस उद्देशक के ८० प्रायश्चितस्थानों में से किसी भी प्रायश्चित्तस्थान का सेवन करने वाले साधु-साध्वी को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन :
'अणुग्गए सूरिए' - इस शब्द का अर्थ सूर्योदय के पहले परठना नहीं वैसा होता है, परंतु वह अर्थ सुसंगत नहीं। 'दिन में मलविसर्जन करने वाला साधु दिन के उगने पहले परठे तो प्रायश्चित्त आता है' - ऐसी बात असंगत बन जाएगी। अतः उसका अर्थ जहाँ सूर्य का ताप पहुँचता नहीं, वैसे छाया वाले स्थान में परठे तो प्रायश्चित्त आता है, वैसा करना चाहिए।
पात्र में उच्चार-प्रस्रवण कर के परठने की विधि का निर्देश आचारांगसूत्र, श्रुतस्कंध-२, अध्ययन-१० में है, तथापि योग्य समय
और योग्य स्थंडिलभूमि सुलभ हो तो साधु को स्थंडिलभूमि का ही उपयोग करना चाहिए।” (पृष्ठ-६०, हिन्दी भाषा में अनूदित)
तेरापंथी संप्रदाय : आचार्य तुलसी के प्रमुख पद के तले श्रीजैन विश्वभारती लाडनूं