Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
ग्रंथ
कर्ता
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संमूर्च्छिम मनुष्य की परंपरा को सदिओं प्राचीन सिद्ध करता हुआ स्पष्ट उल्लेख ।
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आधार - निशीथसूत्र की प्राचीनतर टीका - निशीथपंजिका
पाठ
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५८
प्रश्न ३६
66
" अणुग्गए सूरिए इति निशीथे प्रोक्तं तत्कथम् ? उच्चारप्रस्रवणादिरक्षणे मुहूर्त्तमात्रतो जीवोत्पत्तिः, अनुद्गते सूर्ये परिष्ठापनतो दोषापत्तिः, तन्निरोधे रोगोत्पत्तिः, तर्हि किं करणीयम् ?
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प्रश्नपद्धति
नवांगीव्याख्याकार श्रीअभयदेवसूरीश्वरजी महाराजा के समर्थ शिष्य पू. पंडित श्रीहरिश्चंद्रविजयजी गणिवर
तत्राह - इति न बोध्यम्, यत्प्रदेशे दिनकरप्रतापं नायाति तत्र न परिष्ठापनीयमित्यनुद्गतशब्दार्थों ज्ञेयः । तत्पञ्जिकायां प्रोक्तं- 'यत्राकोशवो न पतन्ति तदनुगतस्थानमयोग्यमि 'ति । " (पृ. ४० )
प्रश्न :
अनुवाद :
" अणुग्गए सूरिए" इस प्रकार श्रीनिशीथसूत्र में कहा है उसका अर्थ क्या समझना ? (आशय यह है कि निशीथसूत्र में सूर्योदय के पूर्व मल-मूत्र नहीं परठना' ऐसा कहने से निम्न मुश्किली आती है - ) मल-मूत्र को यदि रखने में आए तो [ मुहूर्त्तमात्रतो जीवोत्पत्तिः अर्थात्] दो घडी में जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, सूर्योदय के पहले परठने में दोष लगता है और मल-मूत्र को रोकने में रोग की उत्पत्ति होती है, तो फिर क्या करें ?
उत्तर :- 'जिस प्रदेश में, सूर्य का ताप न आए वहाँ मल-मूत्र न परठें' ऐसा अनुद्गत शब्द का अर्थ समझें । श्रीनिशीथसूत्र की पंजिका में बताया है कि 'यत्रार्काशवो....' जहाँ सूर्य के
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