Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
संमूर्छिम मनुष्य की विराधना निशीथसूत्रसम्मत
निशीथसूत्र विषयक प्रस्तुत चर्चा का सार यही है कि संमूर्छिम मनुष्य की विराधना हमारी कायिक प्रवृत्ति से शक्य ही है - यह बात प्रत्येक पूर्वाचार्यों के हृदय में बैठी है। तदुपरांत, यह तो रोज़मर्रा की घटना होने से सहजतया किए हुए उपर्युक्त उल्लेख इस परंपरा की प्राचीनता
और मौलिकता की नेकी का पुकार करते हैं । यह निःशंक-निसंदिग्ध सत्य है कि हमारी कायिक हिलचाल से संमूर्छिम मनुष्य की विराधना संभवित है। अत एव पंचमहाव्रतधारी श्रमण-श्रमणी भगवंतों को चाहिए कि वे संमूर्छिम मनुष्य की रक्षा में एवं अपने निमित्त से संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति न हो तदर्थ सदैव प्रयत्नशील रहें।
निशीथसूत्र के तीसरे उद्देशक के अंतिमसूत्र के आधार पर “मलमूत्र को लंबे समय तक संपूर्ण रात्रि तक रखना शास्त्रकारों को इष्ट है, विहित है। अतः संमूर्छिम मनुष्य की विराधना नहीं होती' - ऐसा किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होता। • मल-मूत्रादि का शीघ्रतया सूख जाना आवश्यक : निशीथचूर्णि |圖圖圖圖靈靈圖國圖圖圖圖圖圖隱靈靈屬靈感圖
'काईयभूमी अप्पा, संसत्ता वा, ताहे दिवसतो वि मत्तए वोसिरिउं राओ अप्पसागारिते बाहिं परिट्ठविज्जत्ति' इस प्रकार का उल्लेख निशीथभाष्य (गा. १५५४) की चूर्णि में प्राप्त होता है । यहाँ प्रस्रवण परठने की जगह अल्प होने से (=कायिकी भूमि अल्प होने से) रात को विशाल भूमि में, तितर-बितर जल्दी सूख जाए उस प्रकार परठने की अनुकूलता वाली जगह में प्रस्रवण परठने का सूचन किया है वैसा ज्ञात होता है।
चूर्णिकार का तात्पर्य यह है कि दिन में बाहर प्रस्रवणादि परठने में सागारिक (=गृहस्थ) अनेक होने से शासनहीलना वगैरह बड़े दोष
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