Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
४. उच्चार - प्रश्रवण भूमि का चौथे प्रहर में किया गया प्रतिलेखन भी निरर्थक हो जाता है ।
५. अनेक आचारसूत्रगत निर्देशों से भी यह अर्थ विपरीत हो जाता है ।
अतः 'जहां पर सूर्य नहीं उगता' अर्थात् जहां पर दिन या रात में कभी भी सूर्य का प्रकाश (ताप) नहीं पहुँचता है ऐसे छाया के स्थान पर परठने का यह प्रायश्चित्त सूत्र है, ऐसा समझना युक्तिसंगत है।
उच्चार - प्रश्रवण को पात्र में त्याग कर परठने की विधि का निर्देश आचारांग श्रु. २, अ. १० में तथा इस सूत्र में है । फिर भी अन्य आगम स्थलों का तथा इस विधान का संयुक्त तात्पर्य यह है कि
योग्य बाधा, योग्य समय व योग्य स्थंडिल भूमि सुलभ हो तो स्थंडिल भूमि में जाकर ही मल-मूत्र त्यागना चाहिये । किन्तु दीर्घशंका का तीव्र वेग हो या कुछ दूरी पर जाने आने योग्य समय न हो, यथा संध्याकाल या रात्रि हो, ग्रीष्मऋतु का मध्याह्न हो या मल-मूत्र त्यागने योग्य निर्दोष भूमि समीप में न हो इत्यादि कारणों से उपाश्रय में ही जो एकान्त स्थान हो वहाँ जाकर पात्र में मलत्याग करके योग्य स्थान में परठा जा सकता है ।
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सूत्र ७१ से ७९ तक अयोग्य स्थान में परठने का प्रायश्चित्त कहा गया है - जिसमें पृथ्वी, पानी की विराधना व देवछलना, स्वामी के प्रकोप, लोकअपवाद होने की संभावना रहती है । इस सूत्र ८० के अनुसार उपरोक्त स्थानों का वर्जन करने के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परठने के स्थान पर सूर्य की धूप आती है या नहीं, धूप न आती हो तो जल्दी नहीं सूखने से सम्मूर्च्छिम जीवों की उत्पत्ति होकर ज्यादा समय तक विराधना होती है। इस हेतु से अविधि परिष्ठापन का सूत्र में प्रायश्चित्त कहा गया है।
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