Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य शक्य है' वैसा शास्त्रकारों को मान्य नहीं' - ऐसी बात बिलकुल सिद्ध नहीं होती। बाहर उपद्रव होने के समय आपवादिक विधान है - मल-मूत्र को मात्रक में स्थापित कर रखना । निशीथ के पूर्वोक्त (४/ १०२-१०३) दो सूत्रों के साथ निशीथ तृतीय उद्देशक के अंतिम सूत्र की तुलना करने पर शास्त्रकार भगवंत का आशय स्पष्टतया ख्याल में आ जाएगा। अतः उस प्रकार से भी संमूर्छिम मनुष्य की विराधना न होने की बात किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होती। . निशीथसूत्र के प्रस्तुत सूत्र के अर्थघटन विषयक अन्य प्राचीन परंपरा
इस सूत्र संबंधी ओर भी एक प्राचीन परंपरा देख लें कि जिससे इस सूत्र का अर्थघटन स्पष्ट होने से संमूर्छिम मनुष्य विषयक तथ्य अधिक स्पष्ट होगा। श्रीरामलालजी महाराज ने प्रस्तुत सूत्र में 'दिया वा' पाठ नहीं है - वैसा हस्तप्रति के आधार से परिशिष्ट में बताया है। परंतु हम देख चुके कि 'दिया वा' पाठ न रखने पर भी संमूर्छिम मनुष्य की विराधना विषयक तथ्य में कुछ भी फर्क नहीं पड़ता।
तथा स्थानकवासी परंपरा के प्रमुख विवेचन में 'दिया वा' पाठ का स्वीकार कर के अनुवाद किया गया है। तथा 'दिया वा' पाठ की संगति 'अणुग्गए सूरिए' पद को क्षेत्रपरक मानने में ही होने की बात उन विवेचनकारों ने प्रतिपादित की है। रामलालजी महाराज 'दिया वा' पाठ मूलसूत्र का घटक नहीं है-वैसा बताते हैं। अतः ‘अणुग्गए सूरिए' पद को क्षेत्रपरक मानने की बात को निराधार बताते हैं। परंतु हकीकत यह है कि 'दिया वा' पाठ की संगति के उपरांत दूसरे भी तर्क एवं आगमिक प्रमाण विवेचनकारों ने अनुद्गतसूर्य का अर्थ क्षेत्रपरक सिद्ध करने के लिए दिए हैं।
तथा रामलालजी महाराज की ‘अनुद्गतसूर्य = जहाँ सूर्य के