Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य और बाहर, आसन्न-मध्यम-दूर इस प्रकार प्रतिलेखित करनी है।
इस तथ्य को सुस्पष्ट करते हुए निशीथचूर्णि (गा.१८६०) में बताया है कि : “अंतो णिवेसणस्स काइभूमिओ अणहियासियाओ तिन्नि - आसन्न मज्झ दूरे । अहियासियाओ वि तिन्नि - आसन्न मज्झ दूरे। एया काइयभूमीओ । बहिं णिवेसणस्स एवं चेव छ काइभूमीओ, एवं पासवणे बारस । सण्णाभूमीओ वि बारस, एवं च ताओ सव्वाओ चउव्वीसं ।”
अर्थात् तीव्र वेग न हो तब जा सकें वैसी तीन वसति आँगन/ मोहल्ले के अंदर और बाहर । उसी तरह तीव्र वेग हो तब समय पर पहुँच सकें वैसी तीन-तीन वसतियाँ निवेशनक के अंदर और बाहर प्रतिलेखित करें। यह विधान स्पष्टतया सूचित करता है कि सूर्यास्त के बाद भी मल-मूत्रपरिष्ठापन निषिद्ध नहीं है। अन्यथा वसति देखने की बात ही असंगत हो जाएगी। सूर्यास्त के बाद यदि मात्रक में मल-मूत्र कर के रखने ही हो तो मल-मूत्रादिविसर्जन के लिए वसति का प्रतिलेखन ही क्यों करना ? वसति देखने का विधान ही निरर्थक साबित होगा।
निशीथसूत्र का प्रस्तुत तृतीय उद्देशक का सूत्र कारणिक है वह बात स्वयं रामलालजी महाराज स्वीकारते ही हैं। देखें उनके ही शब्द : "सूर्यास्त के पूर्व उच्चार-प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन करते हैं एवं रात्रि या विकाल में बाधा होने पर उस भूमि पर जाकर ही उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करते हैं। कदाचित् बाहर जाकर मल-मूत्र विसर्जन की स्थिति न हो तो..."इस तरह, प्रस्तुत सूत्र का कारणिक होना जब रामलालजी महाराज स्वीकारते ही हैं तब उस कारणिक सूत्र के द्वारा संमूर्छिम मनुष्य की विराधना अशक्य होना कैसे सिद्ध कर सकते हैं ? प्रायशः कारणिक का मतलब ही है अल्प विराधना का स्वीकार कर के बड़ी विराधना से बचने का विधान । तो फिर संमूर्छिम मनुष्य की अल्प भी