Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य मध्यस्थ दृष्टि से परीक्षण करें, जिससे आगमिक दृष्टिकोण स्पष्ट बने और तत् तत् सूत्रों के मार्गस्थ रहस्य हाथ लग जाए।
B क्रमांक विचारबिंदु की भूमिका में रामलालजी महाराज 'संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना हमारी कायिक प्रवृत्ति द्वारा संभवित नहीं' - वैसा बता रहे हैं। * पंचेन्द्रिय होने पर भी संमूर्छिम मनुष्य हिंस्य क्यों नहीं?
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सहज प्रश्न होता है कि संमूर्छिम मनुष्यों की विराधना किन कारणों से नहीं होती ? आखिर वे भी पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर जीव ही हैं। उनकी हिंसा हमारी कायिक प्रवृत्ति से न होने का आखिर में प्रयोजक कौन है? सूक्ष्मनामकर्म के उदय की परिणतिस्वरूप सूक्ष्मत्व जिस जीव में हो उस जीव की हिंसा नहीं हो सकती, क्योंकि वे बहुत सारे इकट्ठे हो तो भी उपघात या अनुग्रह का विषय न बने वैसे सूक्ष्म होने के कारण शस्त्रादि का विषय नहीं बन सकते।
तत्त्वार्थसूत्र (८/११) के राजवार्त्तिक में इस तथ्य को अत्यंत स्पष्ट करते हुए बताया है कि :
“यदुदयादन्यजीवानामुपग्रहोपघाताऽयोग्यसूक्ष्मशरीरनिर्वृत्तिर्भवति तत् सूक्ष्मनाम ।"
इस तरह, सूक्ष्मनामकर्मोदयप्रयुक्त सूक्ष्मत्व होने से सूक्ष्म पृथ्वीकायादि स्थावर एकेन्द्रिय जीवों का हिंसा के लिए अयोग्य होना - यह बात शास्त्रीय है। परंतु संमूर्छिम मनुष्य तो त्रस, बादर, पंचेन्द्रिय और मनुष्य हैं। तो फिर वे हिंसा के लिए योग्य क्यों नहीं ?
यदि यहाँ ऐसा विचार उठ रहा हो कि ‘संमूर्छिम मनुष्य का शरीर अत्यंत छोटा है। वह बादर होने पर भी अत्यंत अल्प-लघु, चर्मचक्षु से अग्राह्य होने से, सूक्ष्म शरीर की मफ़िक ही अहिंस्य है,
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