Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य अप्रतिघात्य है।'
तो यह विचार भी शास्त्र और तर्क की परीक्षा में अनुत्तीर्ण ही रहेगा, क्योंकि बादर शरीर अल्प-लघु होने पर भी उसे प्रतिघात्य मानना ही उचित साबित होता है। इस विषय में गोम्मटसार जीवकांड में उपयोगी गाथा १८३ इस प्रकार है :
"बादर-सुहुमुदयेण य बादर-सुहुमा हवंति तदेहा । घादसरीरं थूलं अघाददेहं हवे सुहमं॥"
अर्थात् बादर नामकर्म के उदय से जीव का शरीर बादर होता है और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जीव सूक्ष्म शरीर को प्राप्त करता है। पर से उपघात पा सके वैसा स्थूल शरीर बादर है और अन्य से उपघात पा न सके वैसा शरीर सूक्ष्म है।
गोम्मटसार की प्राचीन कर्णाटी व्याख्या का अनुसरण करने वाली प्राचीन तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति में इस बात को अत्यंत स्पष्ट करते हुए बताया है कि :
“परेण स्वस्य स्वेन परस्य वा प्रतिघातसम्भवात् घातशरीरं स्थूलं भवति, अघातदेहः सूक्ष्मः (सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्ती) भवति।” (गा. १८३ वृ.)
"बादराणां पुनः अल्पशरीरत्वेऽपि बादरनामकर्मोदयवशाद् अन्येन प्रतिघातो भवत्येव।” (गा. १८४ वृ.)
लघु शरीर होने पर भी बादर जीवों के शरीर का प्रतिघात होता ही है - ऐसे अत्यंत स्पष्ट कथन से फलतः संमूर्छिम मनुष्य को बादर मानने पर भी उसे अहिंस्य मानने की बात को अशास्त्रीय एवं अतार्किक सिद्ध की है, अनुचित बताई है।
शांत और स्थिर अनुप्रेक्षण से यह ज्ञात होता है कि 'संमूर्छिम मनुष्य अपनी कायिक प्रवृत्ति से हिंस्य नहीं' - ऐसी रामलालजी की बात किसी भी प्रकार से आगमिक और तार्किक कसौटी सहन नहीं कर
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