Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य - दोनों में त्रिविध योनि का उल्लेख है। पन्नवणासूत्र का पाठ इस प्रकार है :
"कइविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पन्नता । तं जहा - संवुडा जोणी, वियडा जोणी, संवुड-वियडा जोणी।
नेरइयाणं भंते ! किं संवुडा जोणी, वियडा जोणी, संवुड-वियडा जोणी ?
गोयमा ! संवुडजोणी, नो वियडजोणी, नो संवुड-वियडजोणी, एवं जाव वणस्सइकायाणं ।
बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! नो संवुडजोणी, वियडजोणी, नो संवुड-वियडजोणी। एवं जाव चउरिंदियाणं ।
संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिममणुस्साण य एवं चेव। गब्भवक्वंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गब्भवक्वंतियमणुस्साण य नो संवुडा, नो वियडा जोणी, संवुड-वियडा जोणी।"
अब श्रीमलयगिरिसूरि महाराज द्वारा रचित प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति का आवश्यक भाग देख लें :
“कइविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता - इत्यादि । तत्र नारकाणां संवृता योनिः, नरकनिष्कुटानां नारकोत्पत्तिस्थानानां संवृतगवाक्षकल्पत्वात् । तत्र च जाताः सन्तो नैरयिकाः प्रवर्द्धमानमूर्तयस्तेभ्यः पतन्ति, शीतेभ्य उष्णेषु, उष्णेभ्यः शीतेष्विति । भवनपति-व्यन्तर-ज्योतिष्कवैमानिकानामपि संवृता योनिः, तेषां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते उत्पादात्, 'देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुला संखेज्जइभागमेत्ताए सरीरोगाहणाए उववज्जइ' इति वचनात् ।
एकेन्द्रिया अपि संवृतयोनिकाः, तेषामपि योनेः स्पष्टमनुपलक्ष्यमानत्वात् ।
द्वीन्द्रियादीनां चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां संमूर्छिमतिर्यक्पञ्चेन्द्रिय
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