Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
View full book text
________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य बिलकुल इष्ट नहीं। इसीलिए मानवशरीर को संमूर्छिम मनुष्य के उत्पत्तिस्थान के रूप में दर्शाते हुए उसे 'जीवरहित' - ऐसा बताना शास्त्रकार भूले नहीं हैं। अर्थात् 'जीवरहित होना' - यह बात संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के लिए शास्त्रकारों को आवश्यक ज्ञात हुई है। . योनि विषयक विचारणा
इसके द्वारा, श्रीरामलालजी महाराज ने अपने A-2 क्रमांक विचारबिंदु में संमूर्छिम मनुष्य की उष्ण योनि भी सम्मत है वैसा पेश कर के शरीर के अंदर भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति सिद्ध करने का जो प्रयास किया है, उसका भी निरसन हो गया, क्योंकि उष्ण योनि सम्मत होने मात्र से जीवंत शरीर में संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती, प्रतिबंधक ‘जीवात्मा' = 'मनुष्यात्मा' अंदर जीताजागता बैठा है। . विवृतयोनि के कथन से परंपरा की सिद्धि
रामलालजी महाराज ने जब ‘योनि' की चर्चा छेड़ी ही है तब योनि विषयक एक प्रस्तुत पूरक बात समझ लें। शास्त्र में योनि = उत्पत्तिस्थान के विषय में अन्य प्रकार से तीन भेद बताए हैं : (१) संवृत योनि, (२) विवृत योनि, (३) संवृत-विवृतयोनि । इन उत्पत्तिस्थानों को व्याख्यायित करते हुए एवं संमूर्छिम मनुष्यों को कौन सी योनि होती है उसका सहेतुक प्रतिपादन करने वाले कुछएक शास्त्रपाठ सबसे पहले हम देख लें। तत्पश्चात् हमारे कथयितव्य की विशेष स्पष्टता करेंगे।
श्रीस्थानांगसूत्र (३/१/१४८) तथा श्रीपनवणासूत्र (९/१५२)
१७