Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 29
________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य दर्शाना उचित और लघुभूत होता । शरीर के भिन्न-भिन्न घन-प्रवाही द्रव्यों का उल्लेख कितना समुचित होता ? एक शब्द अति नोंधपात्र है। वह है 'वान्त' = उलटी = वमन । क्या उलटी शरीर के अंदर रही हुई चीज़ का दर्शक है या शरीर से बाहर निकले हुए पदार्थ का ? पित्त-वायु के प्रकोपवश अर्धपक्व आहार, जो शरीर के बाहर मुँह से निकल आता है उसे ही तो उलटी-वमन शब्द से बताया जाता है। तदुपरांत, उच्चारादि रूप अशुचिओं का स्थान बनने वाली ‘गटर' यानी नाले का उल्लेख सूत्रकार करते हैं। यह तो बाहर की ही चीज़ है। • शरीर में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति अशक्य - पन्नवणा सूत्र का गर्भितार्थ एक अन्य बात भी ज्ञातव्य है कि मानवशरीर रक्त, मांस वगैरह सात धातुओं के द्वारा निर्मित है। ये तमाम धातु यदि शरीर में स्थित होने पर भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के स्थान बनते हो तो जीवंत मानवशरीर स्वयमेव उस संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति का स्थान बन गया। ऐसा ही यदि मान्य होता तो पन्नवणा सूत्र में 'विगतजीवकलेवरेसु' - इस प्रकार मृत मानवशरीर को उत्पतिस्थान के रूप में स्वतत्रंतया बताने की आवश्यकता ही क्या थी ? यहाँ यदि ऐसा कहना चाहो कि 'जीवंत शरीर में मांस, हड्डी में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति नहीं होती, मृत शरीर में होती है। अतः स्वतंत्र उल्लेख है।' तो यहाँ हमारा प्रश्न है कि जीवंत शरीर में रहे मांसादि में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति क्यों नहीं होती? आपके मत से तो वे भी अशुचिरूप होने से वहाँ भी उत्पत्ति होनी ही चाहिए। जीवंत शरीर में एवं मृत शरीर में आत्मा की हाज़री-गैरहाज़री रूप ही मुख्य तफावत

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