Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
View full book text
________________
संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य किए गए सबूत एवं तर्क की भी जाँच कर लें।
सबसे मुख्य सबूत श्रीपन्नवणाजी का पूर्वोक्त सूत्र ही है। इस सूत्र का अर्थघटन श्रीरामलालजी महाराज अलग प्रकार से करते हैं एवं उसके लिए अमुक तर्क पेश करते हैं।
अपने A-1 क्रमांक विचारबिंदु में श्रीरामलालजी का यूँ कहना है कि “इस आगमपाठ में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति शरीर के भीतर रहे मल, मूत्र आदि में नहीं होती है, न ही ऐसा कहा है कि शरीर के बाहर निकलने के बाद एक मुहूर्त तक मल-मूत्र आदि में संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति नहीं होती है। सूत्र में सामान्य रूप से संमूर्छिम मनुष्यों के उत्पन्न होने के स्थानों का निर्देश किया है। वे स्थान चाहे शरीर के अंदर हो या बाहर कहीं भी संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं। इतना सुस्पष्ट आगमिक कथन होने के बावजूद पिछले कुछ समय से ऐसा माना जाने लगा कि शरीर में रहे मल-मूत्रादि में एवं शरीर के बाहर निकलने के बाद एक मुहूर्त तक उनमें संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति नहीं होती।"
प्रज्ञापना सूत्र का तात्पर्यार्थ
इस कथन की सत्यता का निर्णय करने के पूर्व एक बार प्रज्ञापना में दर्शित प्रस्तुत संमूर्छिम विषयक सूत्र (देखिए पृष्ठ – ६/७) को व्यवस्थित देख लें। पढने से ही सुस्पष्ट हो जाता है कि सामान्यतया शरीर में से बाहर निकलने वाली अशुचिओं का नामोल्लेख पूर्वक वहाँ संग्रह किया गया है। विशेष संयोगों के अलावा बाहर न आते ऐसे मांस-अस्थि वगैरह का उल्लेख नहीं किया गया है। यदि शरीर के अंदर भी शास्त्रकार को संमूर्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति अभिप्रेत होती तो गर्भज मनुष्यों के समूचे शरीर को ही उनके उत्पत्तिस्थान के रूप में