Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्च्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
"उच्चार-प्रस्रवणादिरक्षणे मुहूर्त्तमात्रतो जीवोत्पत्तिः” । (प्रश्न३६) स्पष्ट बात है कि उच्चार-प्रस्रवण को रखने में एक मुहूर्त के बाद जो जीवोत्पत्ति बताई है वह संमूर्छिम मनुष्य की ही उत्पत्ति बताई है। मुनिराज श्रीहरिश्चंद्रविजयजी तो आचार्य श्रीअभयदेवसूरि के शिष्य थे। अतः इस परंपरा की प्रामाणिकता और प्राचीनता साबित होती है। पू. अभयदेवसूरि महाराज का सत्ताकाल विक्रम की ग्यारहवीं सदी का उत्तरार्ध और बारहवीं सदी का पूर्वार्ध है। अर्थात् यह परंपरा हज़ार वर्ष से भी अत्यंत प्राचीन सिद्ध होती है। पूज्य अभयदेवसूरि या उनके शिष्यरत्न इस नवीन परंपरा के स्थापक नहीं थे। परंतु उनके साहजिक उल्लेख से ज्ञात होता है कि उनके समय में यह सुविहित प्राचीन परंपरा साहजिक और दैनिक थी।
इस तरह चारों संप्रदायों में संमूर्छिम मनुष्य शरीर के बाहर उत्पन्न होने की और अपनी कायिक प्रवृत्ति से विराध्य होने की बात ही मान्य है। हाँ ! संमूर्छिम मनुष्य विषयक चारों संप्रदायों में थोड़े-बहुत अंश में मान्यताभेद ज़रूर है। तथापि उन सभी संप्रदायों मे जिस तरह उस परंपरा का स्वीकार है - वह ऐसा अवश्य साबित करता है कि यह परंपरा सुविहित एवं अत्यंत प्राचीन है।
जैसे कि अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी के विषय में । उनके चरित्र के विषय में दिगंबर-श्वेतांबर संप्रदाय में मतभेद होने पर भी दोनों संप्रदायों में वे मान्य और संमान्य हैं.... परिणामतः वे अत्यंत प्राचीन ही साबित होते हैं, वे आजकल के कोई नवीन पुरुष नहीं हो सकते...
इस तरह, संमूर्छिम मनुष्य विषयक मूलभूत सिद्धांत चारों संप्रदाय में समान है, यह तो निर्विवाद हक़ीक़त है। अतः यह परंपरा भी अत्यंत प्राचीन एवं प्रभुसम्मत माननी रही। अर्थात् परापूर्व से चली