Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य
- इस तरह स्पष्ट रूप में संमूर्छिम मनुष्य को विवृत योनि दर्शाई है। (यहाँ नोंधपात्र है कि संमूर्छिम तिर्यंच को त्रिलोकप्रज्ञप्ति [गा.५/२९५] में संवृतविवृतमिश्र योनि प्रतिपादित की गई है।)
गोम्मटसार, जीवकांड में, श्लोक - ८७ में
"सम्मुच्छणपंच्चक्खे वियलं वा विउडजोणी हु" - इस तरह संमूर्छिम मनुष्य को विवृतयोनि बताई है।
प्रस्तुत ग्रंथ की तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति में “संमूर्च्छनजपञ्चेन्द्रियेषु विकलेन्द्रियवद् विवृतैव योनिः" - ऐसा स्पष्ट किया है।
संवृत-विवृतयोनि की व्याख्या करते हुएतत्त्वप्रदीपिकाकार श्लोक ८३ की व्याख्या में अत्यंत स्पष्ट बतातें हैं कि -
"दुरुपलक्ष्यो गुप्ताकारपुद्गलस्कन्धः संवृतः । प्रकटाकार उपलक्षणीयः पुद्गलस्कन्धो विवृतः।”
तात्पर्यार्थ स्पष्ट है कि प्रकट आकार वाला और पहचान सकें वैसा पुद्गलस्कंध विवृत है... उससे विपरीत हो वह संवृत... . विवृतयोनि की संगति, शरीर के भीतर अनुत्पत्ति पक्ष में
इन सभी शास्त्रपंक्तिओं को ध्यान में लेते हुए संमूर्छिम मनुष्यों की योनि विवृत ज्ञात होती है। विवृत का अर्थ 'स्पष्टमुपलभ्यमान' - ऐसा पूर्वाचार्यों ने किया है। गर्भज मनुष्य की योनि बाहर से ही उपलक्ष्यमाण और अंदर से अनुपलक्ष्यमाण होने से मिश्ररूप मानी गई है। अब तटस्थता से विचारणीय है कि शरीर के भीतर में संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति के स्वीकार में 'विवृतयोनि' संगत होती है या शरीर के बाहर उसकी उत्पत्ति के स्वीकार में 'विवृतयोनि' संगत होती है? शरीर के अंदर रहे उच्चार, रक्त, वान्त वगैरह में भी संमूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति स्वीकृत की जाए तो शरीर के भीतर उत्पन्न होने वाले संमूर्छिम
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