Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 21
________________ संमूर्छिम मनुष्य : आगमिक और पारंपरिक सत्य मणुस्सा य गब्भवक्वंतियमणुस्सा य। से किं तं समुच्छिममणुस्सा ? “कहि णं भन्ते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखित्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवएसु, गब्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणएसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थी-पुरिससंजोएसु वा (गामणिद्धमणेसु वा) नगरणिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइट्ठाणेसु, एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति, अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए ओगाहणाए असन्नी मिच्छदिट्ठी अन्नाणी सव्वाहि पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहत्ताउया चेव कालं करेंति । से तं संमुच्छिममणुस्सा ।" (प्रज्ञा.सू.पद-१ सू.३७) संपूर्ण विचारधारा का केन्द्र बनने वाला यह सूत्र अत्यंत ध्यानपूर्वक स्मृतिपथ में प्रतिष्ठित करने जैसा है। सबसे पहले ध्यानपात्र बात इस पाठ में यह है कि :- संमूर्छिम मनुष्य क्या है? - इस प्रश्न के जवाब में समूर्छिम मनुष्यों के स्वरूप का वर्णन करता हुआ पाठ पेश करने के बजाय 'कहि णं भंते !...' ऐसा संमूर्छिम को संलग्न एक नया प्रश्न उपस्थापित किया गया है। इस बात की संगति स्पष्टतया यूँ ही माननी रही कि संमूर्छिम मनुष्यों के वर्णन के अवसर पर प्रज्ञापना सूत्रकार पूज्य श्रीश्यामाचार्यजी ने अन्य अंगआगमअंतर्गत पाठ ही जवाब के रूप में पेश कर दिया है, कि जो पाठ अपने वचन को प्रभुवचनतुल्य प्रमाणभूत साबित करता है। प्रज्ञापना सूत्र के वृत्तिकार श्रीमलयगिरिसूरि महाराज के शब्दों में यह बात देखे : “अत्रापि संमूर्छिममनुष्यविषये प्रवचनबहुमानतः शिष्याणामपि च साक्षाद् भगवतेदमुक्तमिति बहुमानोत्पादनार्थमङ्गान्तर्गतमालापकं पठति

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