Book Title: Samurchhim Manushuya Agamik Aur Paramparik Satya
Author(s): Yashovijaysuri, Jaysundarsuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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संभूछिन मनुष्य : आणमिक और पारंपरिक सत्य कि अत्र प्रदर्शित तर्कों के खंडन में या शास्त्रपाठों का अन्यतया अर्थघटन करने में प्रज्ञा की सफलता नहीं है। वैसे प्रयास से उस मूलभूत आज्ञाग्राह्य स्वतःसिद्ध पदार्थ का बाल भी बांका नहीं होने वाला। सूर्य की और फेंकी हुई धूल, सूर्य को नहीं परंतु अपनी आँखों को ही नुकसान पहुँचाती है। अतः यहाँ प्रदर्शित तर्क और शास्त्रपाठ के मर्मग्राही बनने द्वारा सत्य का पूजारी बनना अधिक उचित रहेगा... आगमिक तथ्यों से विपरीत दिशा में युक्ति का प्रयोग अनर्थकारी बनता है। इसीलिए यदि अमुक आगमिक-पारंपरिक पदार्थ अपने दिमाग में बैठता न हो तो - 'मेरी बुद्धि अल्प है, विशिष्ट ज्ञानी पुरुष का विरह है, विषय गहन-गूढ है...' इत्यादि विचारों के द्वारा अपने सम्यक्त्व को टिकाने की बात शास्त्रकारों ने की है (देखिए ध्यानशतक-४७), परंतु तत् तत् आगमिक पदार्थों के खंडन को लेशमात्र समुचित नहीं गिना है।
सुस्वागतम् ! परम पावन जिनाज्ञारूपी शुद्ध वस्त्र पहन कर सत्य की पूजा के लिए प्रस्तुत ग्रंथमंदिर में पधारिए...
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