Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 29
________________ दशधामनोरणीननं नगरद्वाग्मदीक्ष्य दुर्गमं । मटविणागलामे व नयहरत-परितः सणादितः ।२. प्रयं-उमने जब उम नगर केदार को पोर देखा तो उसके एक हजार तो नोरण बने थे पोर बोम लाम्व योडारों से बह पुक्त पा इसलिये उममे मा वंमा प्रारमो गुण नहीं सकता था, ऐमा देखकर वह कुष्ट देर के लिए उम नगा को चारो तरफ घूमने लगा। अथ पर्यटनार्थ मागनंद मंगवणभपने: गतः । अवलोक्य कृतः कि.मागतः कि.मदन्ती निभवानियधनः ।२१ प्रय-नने मेसो घूमने के लिये प्राये रपे ऐगाण गमा के लरका उमे देवा ना जान उमर पाम जाकर उममे उनोंने पहा कि प्रापकोन है. करीम प्रोर किम लिये यह पर प्राये। अनकापासम्मको हान्य या मन्दिरक्षा भवता मदमागतम्नये नदि मम्बिहरंथ मपर्थ ।२२। प्रय .. नव रमने उना में कहा रि. प्रकार का रहने वाला हं घोड़ों क' ग्यना की मेग काम सिफ में प्रापके नगर को देय ने की इच्छा मे ही पूचना फिरना हया या प्राया है। विनिगम्य निवेदितं तकरयापद त प्यते न के कुस्तान मदनुग्रहं हि तु म्घय मारोहणतः परीक्षितु ।२३ प्रपं-यह बात सुनकर वे लोग बोले कि वस्तुत: प्रापका घोड़ा एक प्रपूर्व घोड़ा है इस बातको तो कौन नहीं मानेगा किन्तु

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