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हिंमानृतम्तेयपरिग्रहेषु प्रसन्नभावादधकारणेषु । उदेति गर्ने नदथाविग्न्या यन्कारणं म्यानरकाख्यगन्याः ।३६
अर्थ-जोधों को मारना, झूठ बोलना, चोरी करना और दुनियां की चीजों को बटोरना, इन पाप के कारणों को करते हुये इनमें तल्लीनता रखना, प्रमन्न होना मो रौद्रध्यान कहलाता है, जो कि अविरति भावको लिये हये होता है और जिसका कि फल प्रधानता से नरकति है। उदछनम्ते अशुभाद्वियोगान नयोपयोगम्य च सम्प्रयोगात । क्वचिकदाचिन्छभयोगनोऽपि भोपयोगप्रतिभावतोऽपि ।३७
प्रथं -प्रातं और गेंद्र ये दोनों ध्यान, प्रशुभोपयोग वाले मिध्यादृष्टि जीव के तो होते ही हैं जो कि अशुभ योग के द्वारा हुवा करते हैं परन्तु कभी कहीं शुभयोग के द्वारा परोपकार चेष्टा से भी होते हैं प्रोर गुभोपयोग वाल सम्पटि जोव के भी हो जाया करते हैं। महोपयोगेनामेन गम्यं -योगम्य प्रयोजनकं ममम्य । मंग्यायने ध्यानमिदं हि धयं यच्चाशुभनात्र तदप्यधय १३८
अर्थ--जहां शुभोपयोग के माय २ शुभयोग का भी मेल हो अर्थात् इस शरीर से अपनी प्रात्मा को भिन्न मानते हुये यह जीव लोगों का भला करने में तत्पर हो उसका नाम धय॑ध्यान है, परन्तु अशुभोपयोग के माय में जो इन्द्रिय दमनादिरूप चलन में मन लगाया जाता है वह धर्माध्यान सा प्रतीत होता जरूर है