Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 114
________________ १०४ मर्थ-उपयुक्त प्रकार धम्यंध्यान का प्रयास करते करते अपने मन वचन काय को क्रिया को अच्छी तरह से अपने वश में करके अपने उपयोग को और सब तरफ से हटा कर बेलाग बनाता हुवा यह प्रात्मा अपने मनके द्वारा अपने प्रापका हो विवार करने लग जाता है एवं माहस के द्वारा उसमें ऐसा प्रडोलपना प्राप्त कर लेता है कि ध्यान, ध्यान करने वाला और ध्यान करने की चोज इन तीनों में स्पष्टरूप मे कोई भेद ही नहीं रह जाता, बस इस प्रकारको दृढ़ता के साथ उमो धर्मध्यान को शुक्लध्यान के रूप में ढाल लेता है, परन्तु ऐसो अवस्या को प्राप्त करने वाला प्रगर हो तो एक इस मनुष्य पर्याय में नर शरीर का धारक जीव हो हो सकता है और कोई नहीं हो सकता। शुद्धोपयोगेन वियोगभाजा निहत्य मोहं पुनरेप राजा । प्रसिद्धधाम्नः शिवपननम्य प्रवर्तने गं भवितुं प्रशम्य ! ।४१। प्रय हे धन्यवाद के पात्र ! सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों के भले प्रकार त्याग को लिये हुये होने वाले एवं मन वचन और शरीर के व्यापार को रोककर अन्त में उमको भी बिलकुल नष्ट कर देने वाले शुद्धोपयोग के द्वारा मोहकर्म का नाश कर फिर शेष कर्मों को भी खपाकर यह प्रात्मा प्रमिद्ध महत्व वाले मोक्षरूप नगर का राजा होने के योग्य हो जाता है । सम्पत्तयेऽमुष्य विकल्पमन्यं त्यक्त्वा परित्यज्य च वस्तुबाह्य । निद्राक्षुधाय च विजिन्य साम्यमेकानतो भाति किलावगाह्यौं ।४२

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