Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 121
________________ १११ athari faमुखो भृत्वा सर्वेभ्योऽप्यभयप्रदः । समचतुरस्र संस्थानः सवृत्तपरिणामवान् ॥ ६ ॥ प्रथं - वह डरपोक लोगों का विरोधी प्रर्थात् उन्हें डराने वाला होकर भी सबको निर्भय करने वाला था तथा सुडोल चौरस प्राकार वाला होकर भी गोल था, यह अर्थ भी परस्पर विरुद्ध है इसलिये ऐसा श्रथं लेना कि वह भौरतों के प्रसङ्गका त्यागी था, पूर्ण ब्रह्मचयंका धारक था और सभी को प्रभयदान देते हुए हिंसा का पूरा अनुयायी था एवं पांच महाव्रतों का धारक था प्रौर सुडोल शरीर वाला था । ग्रन्थं पुनरधीयानो निग्रं न्थानां शिरोमणिः अनेकान्तमताधीनो ऽप्येकान्तं समुपाश्रयन ॥ ७ ॥ अर्थ- वह परिग्रह रहित निम्रन्थ लोगों का मुखिया होकर भी बार बार ग्रन्थोंके प्रध्ययन करने में ही लगा रहता था जिसमे कि उपयोग की निर्मलता हो । और इसीलिये अनेकान्त स्याहाब मत का अनुयायी होकर भी वह सदा एकान्त स्थानको प्रपनाया करता था । विनाशनम सावस्थादागमोऽस्य विनाशनं । - कतु किल समन्तानां मत्वानां हितवाकः | ८ अर्थ- वह सभी जीवों के हित की इच्छा करने वाला महाशय बहुत दिन तो बिना भोजन के उपवास से हो बिताने लगा क्योंकि इस शरीर के प्रालसीपन का नाश करना था ।

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