Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 126
________________ ११६ यममानगुणोऽन्येषां समितिष्वपि तत्परः गुप्ति मेषोऽनुजग्राहागुप्तरूपधरोऽपि सन् । २१ । प्रबं - जिनका प्रौर लोगों में पाया जाना कठिन था ऐसे क्षमावि गुणोंका वह धारक था प्रौर ईर्या भाषा एवरला प्रादान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना इन पांच समितियों में तो हर समय हो तत्पर रहता था एवं वह स्पष्ट निरावरण दिगम्बर वेशका धारक था फिर भी वह तीनों प्रकार की गुप्तियों का पालने वाला था । स्थाणुवन्मम मान्मम्यग् निरुध्य वपुरादिकं कण्यन्ते यतः मते शरीरं हिरणादयः। २२ । प्रथं - वह जब ध्यानमें एकाग्र हो रहता था तो मन वचन काय की चेष्टा रुक जाने से घोर श्वास की भी चेष्टा न कुछ सरीखी सूक्ष्म मात्र रह जाने से वह एक ठूंठ सरीखा प्रतीत होता या ताकि हिरण वर्गरह पशु लोग प्राकर उसके शरीर से खाज खुजाने लगते थे । तत्र प्रच्द्रममन्विष्य रागाद्य न्दुरसंग्रहं । निष्काशयितुमेवात्म-पटसंहारकारकं |२३| घयं बाहर में प्रगट होनेवाले रागद्वेषादि को तो पहले ही जीत लिया गया था किन्तु अब जो कि अन्तरंग में जिपे हुये थे और भीतर ही भीतर इस म्रात्मरूप कपड़े को कतर कर बरबाद कर रहे थे उन छिपे हुये रागादि चूहों को भी खोजकर निकाल बाहर करने लिये -

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