Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 124
________________ ११४ रहकर समभाव को प्राप्त हो रहा था। एवं वह तत्व से अर्थात् सारमूत बात से कभी भी दूर न हटकर सज्जन पुरुषों में हमेशह विनय भाव को धारण किये हुये था। प्रायश्चिनं चकारप ध्यान बाध्ययने ग्तः । परेभ्योबाधकं न म्यादेवमङ्ग म मन्दधन् ।१५। अर्थ-प्रधिकतर तो वह अपने मन को ध्यान में लगाया करता था, इतर काल में स्वाध्याय में लगा रहता था। अपने शरीर को इस प्रकार दृढ़ता के साथ जमाकर रखता था ताकि उसके हलन चलन से किसी भी जीव को कोई प्रकार की बाधा न होपावे, अगर ऐसा करने में कहीं जरा भी भूल हुई तो उसका प्रायश्चित करने को तैय्यार था। निद्रां तु जिनवानव पूर्वम्नहवशादिव । आलिङ्गयो विशश्राम रात्री किञ्चिन्कदाचन ।१६। प्रयं-इस पृथ्वी से पुराना स्नेह लगा हुवा था इस लिये मानों कभी कुछ देर के लिये इसे प्रालिङ्गन करके विधाम कर लिया करता था अन्यथा तो फिर निद्रा को तो वह जोत हो चुका था। म्वान्नं हि क्षालयामाम म्नातकत्वे समुन्सुकः । पौद्गलिकम्य देहस्य धावनप्रोनातिगः ।१७) प्रयं-उसने सोचा कि इस पोद्गलिक शरीर के धोने और पोंछकर रखने से क्या हो सकता है प्रतः उससे दूर रहकर वह सच्चा

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