________________
११३ करके उसको गन्ध को ग्रहण कर तृप्त हो जाता है उसी प्रकार वह भी प्रसन्नता पूर्वक गृहस्य के द्वारा प्रपंरण किये अन्न को हो प्राप्त करके अपनी भूख को मिटा लेता था।
पाणिरेवाभवत् पात्र म्यानमेवामनं परं । मौनमेव पुनर्भिक्षामाधनं तम्य योगिनः ।१२।
प्रपं-उसके लिये उसका हाथ हो तो भोजन करने का पात्र पा, एक जगह निश्चल बड़े हो रहना हो प्रासन पोर मौन धारण किये रहना, हाथ वगैरह का इशारा भी न करना सो हो भिक्षा सेने का तरीका था, क्योंकि वह योगो था।
अकायक्लेशकन्वेन कायक्लेशोषयोगवान । वैग्म्यमावरहिनो ग्मनवान्वभृन्ववनित ।१३।
प्रयं-वह अपने पूर्वकृत पाप कर्म को न करने की इच्छा रखता था इसलिये कायक्लेश नामक तप में तत्पर हो रहता पा मर्यात शरीर को पाराम तलब न बना कर उमको निर्रोव कठोर साधना में लगाता रहता था। वह किसी के साथ में दरभाव नहीं रखना था प्रतः संसार के किसो रसको रमोला न कहकर सब जगह मध्यस्य होकर रहने लगा था।
आरण्यमुपविष्टोऽपि श्रीमान ममरमानः । न नत्वानिगनः मत्सु ननत्वं गतवानपि ।१४।
प्रपं-परणस्य भाव मारण्यं पानी प्रकलहकारिपन को यो पसन्न करता हो वह समर-सङ्गत, यानि पुट में सम्मिलित नहीं हुना करता परन्तु वह योमान पर प्य मेवार प्रति बङ्गल में