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११२ कुनघ्नायेव देहाय दातु भुक्तिमपीत्यसो । नाभिलाषी भवन् किञ्चिदत्तवानेकदा दिने ।९।
प्रथं-इस शरीर को कृतघ्न मानकर, क्योंकि देते देते और पोषते २ भी यह जवाब देता चला जा रहा है प्रतः अब वह इसे भोजन भी नहीं देना चाहता था, कभी देता भी था तो दिन में एक बार पोड़ा कुछ दे लिया करता था।
स्वाध्यायध्यानकारिवाह हायाप्यशनं ददौ । द्वित्र क्या परोन्मृष्ट दिनरन्वेपिने यथा ।१०।
अर्थ-जैसे किसी को चोरी गये हुये प्रपने माल का पता लगाना हो तो खोज निकालने वाले को उसका मेहनताना देकर उससे वह काम लिया करता है, उसी प्रकार उस गृहत्यागो को भी भुलाई हुई प्रपनो प्रात्मा का पता लगाकर उसे प्राप्त करने को लगी थी, जो कि कार्य इस देह को सहायता बिना नहीं हो सकता था, इसलिये लाचार होकर वह इस शरीर को इसकी खुराक भी देता था परन्तु कभी दो दिन से कभी तीन दिन से, इस प्रकार उदास भाव से देता था सो भी खुद उसके लिये कोई प्रयास न करके सिर्फ गृहस्थों को बस्ती में जाता था और वहां पर भक्ति पूर्वक प्राग्रह करके जो कोई इसे देता था उसी से ग्रहण करता था।
कदाचित्कुममेभ्योऽपि गन्धग्राहीव षट्पदः । गृहस्थानां गृहेभ्योऽसो जातवृत्तिमुपामदन् ।११।
अर्थ-जसे कि भौरा फूल को किसी भी तरह की पड़चन न