Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 115
________________ १०५ प-इस शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिये उस हद संहनन के धारक मनुष्य को इतनी बातों को बहरत होती है कि यह प्रौर सभी प्रकार के विकल्पों का त्याग कर दे, अपने प्रापके सिवा पोर सभी बाहर को बीजों को भी छोड़ने, नोव मूल वगैरह को जीत कर एकान्तमें दृढ़ प्रासन कर ले एवं साम्प को प्राप्त हो जावे पोर शत्रु मित्र तृण काञ्चन वगैरह में मईया बुरे भलेपन से रहित हो नावे तब कहीं यह प्राप्त हो सकता है। शृगात मो मारममुष्य शुक्ल-ध्यानाग्निनाऽनेनविनात्मनस्तु । विनश्य मा चिकणता कथं म्यादच्चेः पृथक कर्मकलवस्तु ।४३ प्रपं-हे भय्या ! सुनो, इस शालध्यानरूप अग्नि के बिना इस प्रात्मा को वह रागढ षरूप चिकनाई न होकर इसको कर्मरूप कालिमा और किस प्रकार दूर हो सकती है। कर्मागमो यद्यपियोगतस्तु परिग्रहम्तत्रनिबन्धवस्तु । त्यागं जयायास्य नरः कगेतु प्रयत्नतः मम्मति कर्महोतु।४४ अर्थ-यद्यपि कमौका पाना तो योगों से होता है परन्तु उनको प्रास्मा के साथ एकमेक करके रखना यह प्रहार पोर ममकाररूप परिग्रह का कार्य है, इसलिये उन कोका नाश करने के लिये मनुष्य को परिग्रह का त्याग करना चाहिये । वह त्याग भी सात्विक राजस पोर तामम के मेवसे तीन तरह का है। त्यागोऽपि यो देहभृतोपरिष्टान्मन्धीयने तामम एपशिष्टा । बदन्त्यमुघोमिनर्थहेतु मोनोर्यथैवावु विपतये तु ॥४५॥

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