Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 117
________________ बनाकर सम्यग्दृष्टि कहलाने लग जाता है । रहा ममकार, वह चार तरह का होता है, एक तो वह जिससे कि यह जीव प्रन्याय का पक्ष लेकर न खाने योग्य चीजों के भो ग्याने में प्रवृत हो, दूमरा वह जिससे बुरी बातों को तरफ तो इस का मन कभी भी न जावे किंतु सच बोलना, मन का भला करना, किसी का भी बिगा न करना प्रावि प्रच्छे कार्यो में संलग्न रहे। पगम्वरूपानग्णानिवृत्तिम्तयो यथाम्न्यानदशापकनिः । अनीन्य चैताः कृतकृत्य आम्नां महोदयम्नतिमिनः मुभाम्नां ।४०. प्रथं-तोमरा ममकार वर. जिममे कि म.प्रवृत्तिको भी व्यग्रता को छोड़कर स्वस्य । प्रात्मानम्या । नहीं बन सकता । चोया ममकार वह प्रात्मावलम्बी होकर भी उम पर दृढ़ता के माय जमकर नरों रह सकता । जम कि एक प्रादपी मिट्टो ग्यान में लगकर पांडुरोग हो जाने में प्रात होगया किन्तु मिट्टो खाने को नहीं छोड़ रहा है, फिर कभी किमो वंद्य करने मे मिट्टो ग्वाना तो छोड़ देना है परनु प्रय उमके बदले माडूर वगं रह प्रोषधि खाने के फिकर में है। एवं प्रविधि सेवन करने से रोग दूर होगया प्रोषधि लेना भी बन्द कर दो, फिर भी प्रभो पहन मरं ग्वो शक्ति न होने से अपने कारोबार को न सम्भाल कर प्रागम पाने के फिकर में है। प्रब कुछ दिन बाद पोड़ो ताकन प्राने पर प्रपना काम भी करने लग गया परन्तु बीच २ में थकान मानकर पोर पोर बातोंमें मन लगाने पगता है। यह उपर्युक चारों पमकारों का रूपमे स्पष्टोकरण है, परन्तु जब चारों ही प्रकार के ममकारको उल्लंघन कर

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