Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 116
________________ अर्थ-उनमें से चूहों को सहजरूप से पकड़ने के लिये जैसे बिलाव मौन पकड़ कर बैठा रहता है वैसे ही मन में छल कपट रख कर जो सिर्फ ऊपर से त्याग किया जाता है वह तामस-याग होता है, यह तामस त्याग घोर दुःख देनेवाला है और अनर्थ का ही कारण है, ऐसा समझतार कहते हैं। प्रम्यानयेऽपि नियते अन्नाथ राजमातावद सावननाः न मिद्धये माम्प्रनमृद्धयऽयं परन्तु भृयादवनी प्रणयः ।।४६ प्रयं- एक त्याग वह होता है जो कि अपने प्रापको उन्नत समझते हुए बड़प्पन के लिये किया जाता है, उसे राजस-स्याग समभना चाहिये,यह त्याग बुर्गवासनाको लिये हुये नहीं होता, निष्पाप होता है प्रत: पुण्य के कारण सांसारिक विभूति का देनेवाला होता है किन्तु इसके द्वारा भी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। यथैव तन्वाव बननचेत-म्कारेण चेम्वीक्रियते ततः म मात्विको भृवलयेऽनपाय-पृनिंगतः मिद्धि ममागमाय ।।४७ अर्थ-किन्तु जो त्याग शरीर वचन और मन को सरल करके किसी भी प्रकार की प्रतिभावना रहित सच्चे विचार से स्वी. कार किया जाता है वह सात्विक होता है, जो कि इस भूतल पर निर्दोषरूप से प्रपनो पराकाष्ठा पर पहुंचने पर सिद्धिका देनेवाला है। हमानहङ्कारमतीन्य भ्याइवेच्चतुर्धा ममकारभृया । एकाकृतानी निरभक्ष्यवृत्तिर्भवद्वितीया खलु मप्रवृत्तिः ।.४८।। अर्थ- वह सादिक त्यागाला जोव स्वं प्रथम महंकारका त्याग करता है, जिससे कि अपने विचार को सत्य मार्गके अनुकूल

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