Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 110
________________ अर्थ-शुभोपयोग के साथ २ शुभयोग भी हो तो उससे हर समय प्रशस्त पुण्य का बन्ध होता है, जिसके कि उदय में इस जोव को इन्द्रादिपव को प्राप्ति हुवा करती है, ऐसा हे भाई मैं जानता हूँ। शुभाच्चयोगादशुभोपयोगी यदनिपुण्यं च ततः मभोगी । भवन्दुगगावशनोऽत्रपापमुपायं पश्चादधति मापत् ।३१। __ अर्थ --प्रशु भोपयोग वाला जीव अगर कहीं शुभयोग कर लेता है तो उसमे जो पुण्य बन्ध होता है उसके द्वारा वह भोगों को प्राप्त जरूर करता है, परन्तु अपनी दुराशा के वश में होकर उनमें लोन होता हवा वह प्रागे के लिये पाप का उपार्जन करके बुरी तरह से प्रध:पतन को प्राप्त होता है। दुष्टान्चयोगादशुभापयांग पापं महनम्याद मुकप्रयोगे । जीवोऽवदुःखादतिदःग्यमति न भृरिकालाच्च यतो निरेति ।३२ अयं परन्तु जब प्रशुभोपयोग के साथ प्रशुभयोग होता है उससे तो घोर पाप कर्म का बन्ध पड़ता है, जिसके कि उदय में इस जीव को दुःग्व के ऊपर दुःख भोगना पड़ता है एवं बहुत काल तक भी उससे छुटकारा नहीं हो पाता है । शुभोपयोगेन यदा कदाचिदशम्नयोग ममुपागता चिन । तदजिनं पातकमाशु नश्यनत्राग्रतः सम्पदमेवपश्येन ।३३ प्रयं-शुभोपयोग वाले को बुद्धि प्रथम तो प्रशुभयोग पर जातो ही नहीं, प्रोर कभी कहो चलो भो गई तो उससे जो पाप

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