Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 108
________________ ६८ योग को प्राप्त होते हुये महात्मा बनकर क्रमसे अपने रागादि दोषों का नाशकर तदनन्तर प्रामगत प्रावरण को भी पूर्णतया हटाकर वह रात्रिके अन्धकार से रहित एवं उदय को प्राप्त होनेवाले पूर्ण प्रकाशमान सूर्य को मो महिमावाला हो लेता है तब ही परमात्मा होता है । इस प्रकार उपयोग का वर्णन करने के बाद प्रब योग का वर्णन शुरू होता है । मनोवचः काय कृतात्मचेष्टा मकं तु योगं स किलोपदेष्टा । शुभाशुभावना जगाद द्वेधा जिनी यस्य वरोऽभिवादः | २५ - मन वचन और काय के द्वारा जो प्रात्मा में परिस्पन्द होता है उसी का नाम योग है, वह योग शुभ प्रौर प्रशुभ के भेद में दो प्रकार का होना है, ऐसा प्रपूर्वमहिमा वाले परमोपदेशक सकल परमात्मा श्री जिन भगवान ने बतलाया है । श्रयं स्वकीय देहेन्द्रियष्टये तु श्रश्रादिदस्यायकुलस्य हेतुः । यच्चेष्टितं स्यात्तदिहानुभाव्यं योगं जिनानामधिराज आख्यत् । २६ अर्थ केवल अपने ही शरीर और इन्द्रियों को पुष्ट करने के लिये जो प्रक्रम किया जाता है एवं जा नरक या तियंत्रव गति को देने वाले पाप का कारण बनता है, उसको श्री जिन भगवान ने शुभयोग नाम से कहा है । यत्स्यात् परेषामपि नोपकारि विचेष्टितं तच्छुभमात्ममारिन् । जानाहि योग विशेश्वरादि-पदप्रदं तं जिन इत्यवादीत् | २७

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