Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ १६ खाने लगता है, भात उसे कहता नहीं कि तू मुझे खा ले परन्तु ऐसा हो निमित्त नमित्तिक सम्बन्ध है, हां जो व्रती होता है, जिसने कि भोजन का त्याग कर दिया है और जो अपने संकल्पका दृढ़ है, वह भोजन होने पर भी और भूग्व होने पर भी भोजनके लिये प्रवृत्त नहीं होता, अपने उपयोग को नहीं बिगाड़ता। बस तो कर्मोंका भी संसारी प्रात्मा के प्रति ऐसा हो हिसाव है, कर्म का उदय होता है और मनचला अधोर जोव उसके अनुसार होकर स्वयं वंसी चेष्टा करने लगता है, हां, जो दृढ़ मनवाला होता है वह उसे धीरता से सहन कर जाता है, तटस्थ रह कर निराकुल होता है । यही प्रयत्न का अर्थ है। यत्नाय धात्रीवलये नृपालः ! समम्ति तेऽयं खलु योग्यकालः । निजीयकर्नव्यपर्थ मजन्तः मंसिद्धयकालमुपन्ति मन्तः ।२० अर्थ-इस धरातल पर होने वाले सज्जन लोग अपने कर्तव्य पथ पर प्रारूढ़ रहकर उस प्रयत्न को सफलता के लिये काल को भी प्रतीक्षा किया करते हैं, जिसका कि निमित्त पाकर वे लोग सहज सफल बन जाया करते हैं, परन्तु हे राजन् ! तुम्हारे लिये यह समय बहुत ठीक है। शरीरमेवाहमियान्विचारोऽशुभोपयोगो जगदेककागः । प्रतीयतेऽयं वहिगमनम्तु यथार्थतो यद्विपरीतवस्तु ।२१ अर्थ यह शरीर है सो हो मैं हूं. इससे भिन्न मैं कोई चीज नहीं हूं, इस प्रकार के विचार का नाम प्रशुभोपयोग है, इसका

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131