________________
निशम्य पूत्रः पृनरिन्यवाच मत्यान्विना भो भवतां तु वाचः । नथापि कतव्यपथाधिगह-वशंवदः माम्प्रतमागतोऽहम् ।।७।।
प्रथं यह गुनकर भमित्र बोला कि पाप का यह सब कहना तो टीक हो है, में भी मानता हूं कि मेरे दूर होने में प्रापको कहोगा परन्तु है पिना जी में मेरे कर्तव्य पालन के वश हूं, इस लिये प्रापके पाम प्राजा चाहता हूं। है नात शान तिरषजान - मात्रस्थितियांििनधः प्रयातः । मुग्यन व ननिविधाति- भयप्रदः मन्विहरन्विभाति ।।८।।
प्रयं हे पिताजी मेरे बालकपन के बारे में पाप विचार करते है, सो देग्विये ममृद्र का पुत्र चन्द्र तो जन्मते ही उससे दूर होगया था जो कि लोगा के विनोद को छटा को बढ़ाता हुप्रा प्रमन्नता से प्राकारा मे विहार कर रहा है। देहेन याप्यामि मनोऽरिरस्तु तथापि ने पादपयोजवस्तु । माफल पदानाम्नु च ने भाभिवादा यतो मामिह मिनामि ।९।
प्रषं प्रोर र शिलानी मे जाऊंगा भी तो सिर्फ शरीर से जाऊंगा किन्तु मग चिनरूपा भोग तो प्राप के चरण कमलों में ही बसा रहेगा तथा प्रापक भागीर्वाद से मुझे सफलता भी शीघ्र ही मिल जायेगो, जिम प्रापक. प्राशीवाद से हम लोग यहां पर भी फलते फूलते हैं। एवं निशम्यादिनमत्र चित्रा भवन्ति वाचः मुन ! ते पवित्राः । बापो यथा गांगझरम्य यन् पुनीनमातुः ममितोऽमि मन्वं ।१०