Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 92
________________ ८२ लिये ही इस प्रारणी की दृष्टि दौड़ा करती है इसीलिये इसकी ऐसी दशा हो रही है कि उसको छोड़कर प्रौर को, फिर उसे भी छोड़कर किसी और को ग्रहण किया करता है, अगर यह अपनी इन इन्द्रियों को वश में करले तो फिर इसका सब सङ्कट दूर हो जावे । अमिरिवातिशयादमिकोपनः पृथगयं भगवान्वपुषोऽमतः । न नयनेन नयेन तु पश्यतः स्फुरति चिचवतः पुरतः सतः | २० अर्थ- जैसे कि म्यान से खड्ग भिन्न होता है वैसे ही इस प्रशुचि शरीर से यह भगवान प्रात्मा बिलकुल पृथक् है, जो कि इन चमं चक्षुवों से नहीं दीख पड़ता किन्तु विचार कर देखने से एक विचारशील प्रादमी के सामने में स्पष्ट झलकने लगता है । परिमग्न्तमम् परिमारयेत् परिकरं परमात्मकमानयेत् । हृदि यदि क्षणमेकमयं यदा जगति अम्य भवेत् कुत आपदा | २१ प्रथं- - अगर इस नष्ट होनेवाले पौद्गलिक बाहिरी ठाट भुलाकर अपने प्रन्तरङ्ग में एक क्षरण के लिये भी यह मनुष्य पनामा के प्रानन्द को प्रनुभव करले तो फिर इसे यह संसार को प्रापत्ति न सतावे । को परमभावममञ्चितमम्पदा परमभाववशं कलयन् हृदा । पृथुतुजेऽन्यसृजन्निजवैभवं प्रतिविधातुमुदीय सर्वैभवं । २२ प्रयं - इस प्रकार परमशुद्ध पारिणामिक भाव का विचार करते हुये प्रपने हृदय से इतर सभी इन बाहिरी वस्तुवों को विनाशोक मानकर उसने अपने लड़के को बुलाया और अपना बहुत बड़ा

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