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राज को जीतनेवाला हो वस्तुतः शूरवीर है और ये सब प्राणो तो विचारे विषयों के सन्ताप से जलते हुये होकर तृषा के सताये हुये एक से एक अधिक कायर हैं, जीत लिये गये हुये ही हैं, इनका क्या जोतना ? यमनुमारिवरेण ममर्पिता तनपुरीमनुमन्य वृथा हि नां । अधिगतम्तदलङ्का मतिमनग्मान्मगगदकमन्नति ।।११।।
अर्थ-मै मेरो भूल से प्राज तक इस शरीररूप नगरी को जिसमें कि मैं यम नाम के वरी द्वारा कंव किया हया पड़ा हूँ, मेरो समझ कर इसे ही रात दिन सजाने में लगा रहा और इसके लिये अनेक तरह के प्रनर्थ करता रहा।
परिजनेषु अमुष्य हि पक्षिषु मम च पुण्यफलोदयभलिए । परिधृतापि मया ग्वनु बन्धना भवनि किन्तु कुतोऽपि मनिष ना। १२
अर्थ-जिनको परिजन कहा जाता है वे भी सब इसी के पक्षी है मेरे पुण्य फल को भक्षण करने वाले हैं, हम शरीर के सायो हैं, जिनको कि मैने मेरे बन्धु हिनंषी मान रखा है, देखो कि भला मेरो बुद्धि न जाने कहां चली गई, मैं पागल होगया। पुरिपरीतमुपेत्य निजाचिनं परिका परमत्र ममंहितं । दृढ़हदा विनिपातयितु यनेग्मिपि नं मम मालमनाधृतेः ।१३
अर्थ-प्रब मैं उसी को दो हुई इस नगरी में बैठे २ मेरे योग्य परिकर को इकट्ठा कर लू और फिर दृढ़ता के साथ उसको भी ऐसो पछाड़ लगाऊं कि वह भी याद रबखे तभी मेरो होशियारी है।