________________
२८
इत्येतदक्तेः प्रतिवादमाह वालोऽत्र नाहं भवतीं त्यजामि । नेप्यामि याष्यामि महात्मनात्म-चित्तेनिधायेत्युत सम्वदामि । १४ प्रधं - इस माता के कहने के जवाब में वह भद्रमित्र लड़का बोला कि नहीं, में प्रापको यहां पर नहीं छोड़ रहा हूँ, अपितु में जहां भी जाऊंगा वहां अपने चिसमें विराजमान करके प्रापको अपने साथ में ही लिये रहूंगा इस में जरा भी गलती नहीं है, यह प्राप ठीक समझे ।
उत्साहसम्पन्नतया विशेषाद्द विचायस्य विचारमेषा । चिक्षेप लाजाथ शिरःप्रदेशे यः पुनमंज्जुपथप्रवेशे ।। १५ ।।
- माताने जब देखा कि इसका विचार घटल है प्रौर उत्साह भी माहनीय है जिसका कि भंग करना भी ठीक नहीं है तो उसने विशेष कुछ न कह कर उसके शिर पर मंगल सूचक बान को वोले क्षेपण कर दीं और अपनी दृष्टि उसके पवित्र मार्ग को प्रोर फैलाई।
मातुः पदाम्भोजरजः शिरस्त्रं नमोऽस्तुमिद्धभ्य इतीदमस्त्रं । म मम्बलं श्रीशकुनप्रकारं लब्ध्वा प्रतस्थे गुणवान कुमारः । १६ ।
प्रयं उस गुणवान कुमारने माताके चरण कमलों की रज का अपने मस्तक पर टोप बनाया, सिद्धेभ्यो नमोस्तु इस प्रकार के उच्चारण को हथियार बनाना और रवाना होते समय जो प्रच्छे २ शकुन हुये वही उसे रास्ना खर्च मिला, इस प्रकार मंगल पूर्वक वह वहां से रवाना हुवा ।