Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 42
________________ ३२ विश्वस्य भद्रः कपटोकिमेतां श्री मृदुमञ्जु चेताः । रत्नान्युपन्यस्य जगाम लातु स्वकीय नातापितरौ तदा तु । २७ प्रयं उस कोमल प्रोर सरल चिम वाले भद्रमित्र को उसके बनावटी कहने पर विश्वास हो गया, प्रतः वह प्रपने पास के रहन उस श्रीभूति के पास धरोहर के रूप में रखकर अपने माता पिता को लाने के लिये बना गया । प्रत्यायुताय प्रतिदातुमुक्ति कृतेऽयमुष्मायकरोत् प्रयुक्ति । निराशा नमः रोषः भयादतीतो दुतिप्रभोः मः | २८ प्रयं जब भद्रमित्र अपने घर जाकर वहां से वापिस माया और अपने दिये हुये रत्न जब उसने वापिस मांगे तो भयङ्कर से भयङ्कर पाप से भी नहीं डरने वाले उस श्रीति ने गुस्से मे प्राकर उसमें नीचे लिखे प्रनुसार निराशना के वचन कहे । मेरे किज्जल्पमि कोऽसि नाहं जानाम्यपि त्वां कुन आगतोऽमि । दुरं वोन्मत ! मृषोक्तिकोऽमि संज्ञायते भूतपिशाचदोषी | २९ प्रयं परे ! अरे ! क्या कह रहा है तू कौन है, मैं तो तुझे जानता भी नहीं कि तू कहां का रहने वाला है और कहां से घा रहा है, हे पागल ! दूर ट कंमा कूठ बोलने वाला है? जान पड़ता है कि तुझे कोई भून या पिशाच लग गया है इसीलिये तू ऐसा बक रहा है।

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