Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 74
________________ ६४ नवीय योऽपिजनोवृत्तिर्व्यथकिदाचिन्न ममतिवृतिः । विभ्राजतेऽर्थोऽपि सदानभोग एवंविधो यत्र किलोपयोगः |८| प्रथ- जहां पर कोई भी ऐसा प्रावमो नहीं जो कि वृत्तिरहित हो सभी लोग धन्धेशिर लगे हुये हैं धन्धा भी ऐसा नहीं जो कभी भी व्यर्थ पड़ता हो किन्तु कुछ न कुछ धन कमाने के लिये ही होता है और धन को सदा अपने काम में लाते हुये श्रौरों की भलाई के लिये भी खर्च किया जाता है ऐसा हिसाब प्रनायास ही बना हुवा है। कदाचिदासीदपराजिताख्यः पराजिताशेषन रेशवर्गः :1 राजा पुरेऽस्मिन्नुदितप्रतापी यथा ग्रहाणां दिवसेगमर्गः | ९ | प्रयं किमी समय उस नगर का राजा अपराजित नामका था जिसने कि प्रोर सभी राजा लोगों को नोचा दिखा दिया था प्रतः वह ऐसा मालूम पड़ना था जैसा कि ग्रहोंमें सूर्य हुआ करता है जिसका कि प्रताप सब तरफ फैला हवा था । राजापि निर्दोषतया प्रतीत शराधिकारी जडताभ्यतीतः । महाबलीन्थं कुबलाश्चिनोरश्चोराप्रियः सज्जनचित्तचौरः । १० प्रथं- जो राजा श्रर्थात् चन्द्रमा होता है वह निर्दोष यानी रात्रि बिना नहीं होसकता परन्तु वह राजा भूपाल होकर भी निर्दोष था उसमें मद मात्सर्व प्रादि दोष नहीं थे । जो शराधिकारी होता है- पानी पर अधिकार रखता है वह जडता प्रर्थात् ठण्डक से दूर नहीं रह सकता किन्तु वह शर पर अधिकार करनेवाला-वारण वाहकों

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