Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 70
________________ ६० वन्दना के लिये श्रीधरा तथा यशोधरा नाम को दोनों प्रायिकायें भी प्रागई । निर्गतो नरकतोऽपि स पाप विप्रराट् च शयुजन्म ममाप | सोऽतन्त्रयमनेककुजन्मानन्तरं समगिन्द्रपउन्मा ।। ३२ ।। प्रथं- इधर वह पापी ब्राह्मण सत्यघोषका जीव जो कि तीसरे नरक गया था वहां से भी निकल कर फिर अनेक कुयोनियों में जन्म मरण करते २ उसने अजगर का जन्म पाया वही यहां पर शेष में प्राकर इन तीनों मुनि प्रायिकानों को खागया । अष्टमेऽजनि मुपर्वपुरे तैश्च त्रिभिर्ह ममाधिममेतैः । प्राप्य चारूणि चतुर्दशमरि-मम्मितायुरुत दिव्यशरीरं ||३३|| प्रथं- - उन तीनों ने दृढ़ता से समाधि पूर्वक प्रारण छोडे इस लिये वे तीनों ही भले सुख के वेनेवाले प्राठवे काविष्ट नामक स्वर्ग में जाकर वहां पर चौदह सागर की प्रायुको प्राप्त कर दिव्य शरीर के धारक देव हुये । अनुवभूव खलु दुःमहकष्टं यत्र रौद्रमानमोपदिष्टं । शरपि पापपरम्परयाऽतः पङ्कप्रभानरकमुपयातः । ३४ । प्रथं - इधर वह अजगर भी रौद्रध्यान पूर्वक मरा सो वह पङ्गप्रभा नामके चौथे नरक में जाकर अपने पापके उदय से वहां दुःसह कष्ट भोगने लगा ।

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