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अथ पंचमो मर्गः
थी मनः महरदगमपेनाऽधायिका भवाविग्नमवेताः । पूर्ण चन्द्रमभिबोधित मागदागना पहिले कविचाग ।।२।।
प्रथं - उपयं न प्रकार में श्री मुनि महाराज के उपवेश को मनका गंमार में प्रत्यन्त विरक्त है चित जिमका एवं अन्य सब लोगों के भी भले करने का विचार जिमका ऐमो वह रामदता प्राविका घ्र ही वहां में पूर्णचन्द्र को ममझाने के लिये प्राई। चाय मातानिदोन्धितएवा गध्य तक्रमगं बमुदे वा । पृपानिनि म नाय आदिश बदनुकूलकगय ।२।
प्रयं-माता मयिका को प्राई हुई देवकर जिसका होनहार न्या है ऐमा वह पूर्णचन्द्र ग्राम न मे उठ खड़ा हुवा मोर अपने भले के लिये उसने उमक चरणों को नमस्कार किया फिर उसके बाद उसने माता पूछा कि हे माताजी इम प्रापके पादेश क अनु. सा चलने वाले पुत्र क लिये क्या प्राजा है मो कहिये। मा ज गाद् मुन : मन्यभवेन सब जन्मम हहि भवेन । मंयुतोऽपि हि समञ्चमि भोगानान्मनाऽनुभवितु किल गंगान् ।३
प्रयं -म पर प्रायिका बाली कि हे पुत्र इस संसार के सम्पूर्ण जन्मों में सांकृत महिमा वाले इस मनुष्य जन्न को पाकर