Book Title: Samudradatta Charitra
Author(s): Gyansagar
Publisher: Samast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer

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Page 53
________________ ४३ समीपमनस्य मुनिवमाश्रितश्मन यनः । स्फुरन्मनः पयेय नारणद्भितः समन्वितान्यमाचितः | १८ | प्रर्थ उन मुनिराज के पास भी मुनि बन गया और उसने बहुत ऊंचे दर्जेका नप दिया जिससे कि सच्चे दृट संयम का धारक होने में वरमन पवज्ञान और नारादिका धारक होगया । मनोहरेनाने निन्दियः समागतं महवि नमामि । स्मरनिमकिनारामाऽधिपति पुनः मत १९ प्रयं-एक दिन कामदेव को जीतने के लिये तीक्ष्ण बारण प्रतीत होने याने उन्मुनिको मनोहर नाम के वन मे प्राये हुये जानकर वह रामदना नाम की प्रायिका उन ग पुरुषों के शिरोमुनिराज करने के लिये गयी। सुनीश ! नाचको चन्द्रमा तार्यमन । भवाम्पोनम ! मी निवेदनं मे नतिक नमोः | २० अर्थ- वह उन्हें नमस्कार करके कहने लगी कि है मुनोश ! हे सज्जनरूप उत्तम चोरों के लियेन्द्रा समान ! हे मन के मे पार अन्धकार को मेटने के लिये एक प्रनने गये है मारममुद्र करने के लिये उत्तम जहाज सब लोगो के प्रभो ! मेरी एक प्रार्थना है । जनुष्य मुष्मिन्भवतोऽनुजोऽस्ति यः ममात्मजी भोगविलासमक्रियः । करोतु धर्मग्रहणं न वा प्रभो ! समादिशेदं नृपवास्तु भोः । २१ ।

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