Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
हद्वर्तिनि त्वयि विभो ! शिथिली भवन्ति, जन्तोः क्षणेन निबिडा अपि कर्म-बन्धाः। सद्यो भुजङ्गममया इव मध्यभाग
मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य।।८।। प्रभो ! आप जिसके हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं, उसके जन्म जन्म के कर्मबन्धन ढीले पड़ जाते हैं, अर्थात् वह हलुकर्मी हो जाता है जैसे कि वन में चन्दन वृक्ष पर सांप लिपटे रहते हैं, किंतु मोर को पास आया देखते ही वृक्ष को छोड़कर वे दूर-दूर भागने लग जाते हैं।
પ્રભુ! આપ જેના હૃદયમાં આવીને બિરાજો છો, તેના જન્મ-જન્મ નાં કર્મબંધન ઢીલા પડી જાય છે, અર્થાત તે હળુકમી બની જાય છે. જેવી રીતે વનમાં ચંદનનાં વૃક્ષ પર સર્પ લપેટાયેલા હોય પણ મોરને નજીક આવતો જોઈને જ વૃક્ષ છોડીને તે દૂર-દૂર ભાગવા લાગે છે.
Prabho ! The karmic bondage, acquired in past many births, of the devotee in whose heart you dwell gets weak. This means that he is soon liberated from the karmic bondage. Just as when peacocks approach a sandalwood tree, the snakes entwining the tree at once start slithering away.
| चित्र-परिचय
हृदय में प्रभु पार्श्वनाथ विराजमान होने पर अशुभ कर्म स्वयं भाग जाते हैं। जैसे चन्दन वृक्ष पर लिपटे सांप, मोर को आते देखकर भागने लगते हैं।
-
-
H
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org