Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि, नूनं विभो ! हरिहरादि धिया प्रपन्नाः । किं काचकामलिभिरीश ! सितोऽपि शंखो, नो गृह्यते विविध - वर्णविपर्ययेण ।। १८ ।।
हे प्रभो ! अन्य मतावलम्बी जो हरि-हरादि देवों की पूजा करते हैं सो मेरी समझ में आप ही को वे अपने मिथ्यात्वादि के प्रभाव से हरि-हरादि समझकर पूजते हैं, जैसे-पीलिया रोग वाला सफेद शंख को भी पीला समझकर ग्रहण करता है।
हे પ્રભુ ! અન્ય મતાવલંબી જે હરિ-હરાદિ દેવોની પૂજા કરે છે, તેઓ મારી સમજ પ્રમાણે આપને જ તે પોતાના મિથ્યાત્વાદિના પ્રભાવથી હરિ-હરાદિ સમજીને પૂજે છે, જેવી રીતે કમળાનો રોગી સફેદ શંખને પણ પીળો સમજીને ગ્રહણ કરે છે.
O Prabhu! The followers of other religions worship deities like Hari and Har. To me it appears that they, in fact, venerate only you considering you to be Hari or Har under the influence of their unrighteousness. In the same way as a jaundiced person accepts a white conch-shell considering it to be yellow.
चित्र-परिचय
जैसे पीलिया रोगग्रस्त पुरुष को श्वेत शंख भी पीला दीखने लगता है ।
वैसे ही हरि-हर-ब्रह्मा-बुद्ध आदि को पूजने वाला शायद मतिभ्रम के कारण ही ऐसा करता होगा । वास्तव में सर्वत्र प्रभु पार्श्वनाथ का ही दिव्य स्वरूप विद्यमान है ।
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