Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन, पूर्व विभो ! सकृदपि प्रविलोकितोऽसि। मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनर्थाः,
प्रोद्यत्प्रबन्ध-गतयः कथमन्यथैते।।३७।। हे प्रभो ! मेरी आँखों पर मिथ्यात्व-मोह का गहरा अंधेरा छाया रहा, फलतः मैंने पहले कभी एक बार भी आपके दर्शन नहीं किये। यदि कभी आपके दर्शन किये होते तो अत्यन्त तीव्र गति से विस्तार पाने वाले ये मर्मभेदी अनर्थ मुझे क्यों पीड़ित करते?
હે પ્રભુ ! મારી આંખો ઊપર મિથ્યાત્વ-મોહનો ગહન અંધકાર છવાયેલો રહ્યો, ફલત: મેં પહેલાં એક વાર પણ આપના દર્શન ન કર્યા. જો કદી પહેલાં આપના દર્શન કર્યા હોત, તો અત્યંત તીવ્ર ગતિથી વિસ્તાર પામવાવાળા આ મર્મભેદી અનર્થ અને શા માટે પીડિત કરત?
O Prabho ! As the dense mist of deluding fondness was covering my eyes, I never got an opportunity to behold you even once. Had I beheld you earlier, why these heart rending and fast multiplying miseries would have tormented me?
| चित्र-परिचय ___भक्त की आँखों पर जब तक मोह रूपी अंधकार छाया रहा तब तक उसे मर्म स्थानों को बींधने जैसे असाध्य कष्टों का सामना करना पड़ा।
जैसे ही प्रभु दर्शन प्राप्त हुये, मिथ्यात्व का अंधकार दूर हुआ और अनर्थकारी कष्टों से छुटकारा मिल गया।
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