Book Title: Sachitra Sushil Kalyan Mandir Stotra
Author(s): Sushilmuni, Gunottamsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 138
________________ संतारकोऽसि जिनराज ! कथं जनानाम्, भक्ता वहन्ति हृदयेन च तारयन्ति। हुं ज्ञातमद्य ननु संसरते दृतिर्यत्, अन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः।।१०॥ हे जिनराज ! भवान् केन प्रकारेण जनतारकोऽस्ति। भक्तजनाः भवन्तं स्वकीये निर्मले हृदये धारयन्ति सततं वहन्ति भवन्तं तारयन्ति चेति ? एवं कृत्वा मम मनसि विकल्पः आसीत् किन्त्वद्य मे स विकल्पः उपरतः। अहं सम्यक् प्रकारेणाद्य ज्ञातवान् अस्मि यत् जले रिक्ता दृतिः नैव तरति। यदा तत्र पवनप्रपूतिस्तदा दृतिस्तरति। अतः संतरणस्याधारः पवनः । एवमेव भवान् एव संतारको भक्तजनानामिति विषये न खलु मनागपि सन्देहलेशः । हे जिनराज ! आप किस कारण से जनतारक कहलाते हैं ? भक्तजन, स्वयं आपको * अपने निर्मल हृदय-कमल पर बैठाते हैं तथा हृदय से आपका वहन करते हुए स्वयं तिरते * हैं तथा आपको भी तारते हैं। इस प्रकार विकल्प मेरे मन में था किन्तु वह भी अब दूर * हो गया है। आज मैंने विधिवत् जान लिया है कि जल पर खाली मशक नहीं तैरती है किन्तु हवा से भरी मशक तैर जाती है। इससे यह ज्ञात होता है कि भक्तजनों के हृदय-कमल निवासी आप ही संतरण के आधार हैं। वस्तुतः आप जनतारक हैं। હે જિનરાજ! તમે કયા કારણસર જનતારક કહેવા છો? ભક્તજન સ્વયં તમને પોતાના નિર્મળ હૃદય-કમળમાં બેસાડે છે તથા હૃદયથી તમારું વહન કરીને સ્વયં તરે છે તથા તેમને પણ તારે છે. આ પ્રકારનો વિકલ્પ મારા મનમાં હતો પરંતુ તે પણ હવે દૂર થઈ ગયો છે. આજે મેં વિધિવત જાણી લીધું છે કે પાણીમાં ખાલી મશક તરી શકતી નથી પરંતુ હવાથી ભરેલ મશક તરી શકે છે. તેનાથી એ સાબિત થાય છે કે ભક્તજનોના હૃદય-કમળમાં નિવાસી તમે જ સંતરણના આધાર છો. તેથી જ તમે જનતારક છો. Jinaraj! Why are you called Janatarak (one who helps people cross the ocean of worldly existence)? I had the misconception that the devotees installed you in their pure lotus-hearts and carrying you they crossed the ocean themselves taking you along. But that misconception has been removed now. Today I have completely understood that a leather bag does not float when it is empty but only when it is filled with air. This indicates that installed on the lotus-heart of your devotee you are the source of buoyancy. You are indeed the Janatarak. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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